आज कहाँ इस उहापोह में लालबहादुर सा मिल पाते…… आज कहाँ इस उहापोह में लालबहादुर सा मिल पाते……
कभी त्याग तप सज्जनता कीजो प्रतिमूर्ति निशानी थीसदा राष्ट्रहित बलिदानों की-जिसकी अमर कहानी थीजिसका चिंतन मनन सर्वदाजनमानस की सेवा थाफलदायी थी सुखदायी थीनहीं आज... आज कहाँ इस उहापोह में लालबहादुर सा मिल पाते……

कभी त्याग तप सज्जनता की
जो प्रतिमूर्ति निशानी थी
सदा राष्ट्रहित बलिदानों की-
जिसकी अमर कहानी थी
जिसका चिंतन मनन सर्वदा
जनमानस की सेवा था
फलदायी थी सुखदायी थी
नहीं आज सा जुआ था
राजनीति तब राष्ट्रधर्म की
शाला थी परिपाटी थी
दीन दुखी भूले बिसरों के
चूल्हों की चौपाती थी
नाम सियासत जबसे आया
बन पर्याय सा लील गया
नेताओं को वैभव देकर
जनता का सुख छीन गया
त्याग बन गया स्वार्थसिद्धि
सेवा का फल खुद खाते
आज कहाँ इस उहापोह में
लालबहादुर सा मिल पाते
कहीं न दिखते कविताओं सँग
अटल सरीखा कहने वाले
स्वार्थसिद्धि औ काट कपटकर
धन कुबेर बन जाते हैं।


आज लोहिया जी के वारिस
धन की खेती करते हैं
जोर जुल्म अन्याय सभी कर
पशु चारा तक बिकते हैं
समाजवाद की कथरी ओढ़े
श्रृंगालों की बोली में
आज सिसकते दीन दुःखीजन
रात रात भर खोली में
बैंकों के खाते कहते हैं
नेतागण ही खाते हैं
आखिर इनकी कौन आय जो
धनकुबेर बन जाते हैं।।


-उदयराज मिश्र

Times Todays News

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