



जब जब भी थककर चूर हुआ-
पथ कंटक से मजबूर हुआ-
तबतब मैं तुम में खोया हूँ
हे यार!बहुत ही रोया हूँ।।
भयभीत नहीं हूं झोंकों से-
पद विचलित तनिक न रोकों से-
मैं चूका अक्सर मौकों से
हरबार हो असफल खोया हूँ
हे यार!बहुत ही रोया हूँ।।
मत झूठी और दिलासा दो
सब होगा ठीक, ये आशा दो
साधना हमारी क्यों निष्फल?
क्या बीज ही ऐसा बोया हूँ?
हरबार ही आखिर खोया हूँ
हे यार!बहुत ही रोया हूँ।।
जग ऊपर से रंगीन दिखा
जब देखा तो गमगीन दिखा
सब अर्थ अर्थ चिल्लाते हैं
कुछ आते हैं कुछ जाते हैं
हे प्रेम!तुम्हें मैं ढूंढ रहा
हो कहाँ, स्वयम से पूँछ रहा
है आंख खुली,पर सोया हूँ
हर ओर तुम्हें ही खोया हूँ।।
ममता समता लवलेश नहीं
दिखता वाणी में श्लेष यहीं
क्या झोपड़ पट्टी और महल
भूखा किसान औ ताजमहल
रजवाड़े और भिखमंगे भी
कुछ दर्दभरे कुछ चंगे भी
सबकेसब व्यर्थ कराह रहे
तज मूल्य,अर्थ को चाह रहे
मैं खुदको स्वयम डुबोया हूँ
हे प्रेम!तुम्हीं को खोया हूँ।।
-उदयराज मिश्र
अध्यक्ष,माध्यमिक शिक्षक संघ,अम्बेडकरनगर,यूपी
9453433900
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