


डॉ. बलराम त्रिपाठी
ताप बीत गए बरसा आई, रिमझिम रिमझिम गीत सुनाई।
तपती धरती के तन पर, शीतल जल की लेप लगाई।
धूल धूसरित वृछ लता थे, पगडंडी थी धूल भरी।
वर्षा की बूंदों ने कर दी, रगड़ मसलकर धुली धुली।
पशु पक्षी की तपती काया, हो गई शीतल खिली खिली।
मयूर चहक कर नाचन लागे, कू कू करके गली गली।
श्रम सीकर सब सूख गए, मानव तन की काया से।
प्यासी धारा भी तृप्त हो गई, सागर जल को पाने से।
मंद गर्जना नभ में छाई, दृष्ट हटे नहीं इस छवि से।
भर गए सारे ताल तलैया, जल बरसे हैं मेंघों से।
धरा ओढ़ेगी हरी चुनरिया, बीज अंकुरित होने से।
जल है जीवन जीव जगत का, कर लो संचय जीवन धन का।
निर्मल जीवन कर तू जलसा, काम आज का नहीं है कल का।
मेरे हिय का ताप हरो प्रभु, ज्यों जल बरसे मेंघों से। तप्त ह्रदय न रहे किसी का, रूप धरो इन मेंघों से।
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