

कराह रही शिक्षा
अयोध्याजिलेराज्य July 24, 2020 Times Todays 0

उदयराज मिश्र
पुराणों व शास्त्रों में ‘सा विद्या या विमुक्तये’कहकर जिस विद्या को समस्त दैहिक व पारलौकिक बंधनो से मुक्तिप्रदायिनी स्वरूप में स्वीकार किया गया है औरकि जो मानव के मन,मस्तिष्क और आत्मा के अंतर्तम में भी छिपे तमस के सूक्ष्म से सूक्ष्मतम बीज को भी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’के अनुकरण मात्र से संहार कर देती है,वही शिक्षा आज विश्वगुरु की पदवी से कभी अलंकृत भारत में आज व्यवसायी प्रबंधनों और राजसत्ता के जटिल प्रतिबन्धों में आबद्ध हो प्रतिपल कराहती सी अपनी मुक्ति को तरस रही है।कदाचित यह विडंबना ही कही जाएगी कि आज विद्यालयों पर लगते प्रश्नचिन्ह और गैर सहायता प्राप्त वित्तविहीन शिक्षकों की दीनदशा शिक्षा के वर्तमान स्वरूप को परिभाषित करती है।फलतः जीविका को तरसते शिक्षकों की बदहाली कहीं शिक्षा के लिए राहु काल न बन जाये-यह विचारणीय तथ्य है। ध्यातव्य है कि मैकाले के निस्यंदन सिद्धांत के मकड़जाल में उलझी शिक्षा को सर्जन सुलभ और जीवनोपयोगी तथा व्यवहारिक बनाने के लिए स्वातंत्र्य पूर्व और पश्चात अनेक आयोगों का गठन हुआ और अनेकों समितियां बनीं।जिनमें विश्विद्यालय आयोग,कोठारी आयोग,मुदालियर कमीशन,राष्ट्रीय शिक्षा नीति,1986 तथा आचार्य रामचंद्र समिति प्रमुख हैं।इन सभी आयोगों एवम समितियों में शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु समय समय पर अनेक प्रतिवेदन दिए और कइयों उपाय सुझाए हैं।किंतु फिर भी लालफीताशाही और अफसरशाही के फेर में फंसी शिक्षा जहां मैकाले के सिद्धांत से बाहर तो निकली किन्तु आजादी के सात दशक बाद इस मुकाम पर आकर खड़ी है जहां 1985 से गैर सहायताप्राप्त माध्यमिक विद्यालय और महाविद्यालय तथा अन्य संस्थानों के प्रबन्धन धनी से और धनी होते जा रहे हैं,शिक्षा गुणात्मकता को त्याग विज्ञापनों की विषयवस्तु बन चुकी है किंतु शिक्षण कार्य करने वाले सभी शिक्षक तथा शिक्षणेत्तर कर्मी बद से बदतर जीवन जीने को विवश व लाचार हैं।वित्तविहीन शिक्षकों की अवस्था स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की व्यथा कथा से भी दुखदायी और पीड़ादायक है औरकि यह समस्या दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है।जिससे जीवनयापन को लाचार शिक्षकों द्वारा किस गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करने की प्रत्याशा हमारा समाज,सरकार व विद्यालय प्रबंधन करते हैं,यह सोचनीय है। भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में होने के कारण शिक्षा राज्य और केंद्र दोनों का विषय बनकर दुराहे पर खड़ी है।जिसके चलते केंद्र और राज्य अपने अपने स्तर से कानून बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।कदाचित इसका अभिशाप ही कहा जायेगा कि 1985 में इतिहास में पहलीबार उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षा के व्यापारीकरण और निजीकरण को बढ़ावा देने के निमित्त धनाढ्य व्यक्तियों को शिक्षा में निवेश की अनुमति दी।कालांतर में शिक्षक संघों के विरोध ठंडे पड़ने पर शुरू शुरू में मात्र दो वर्षों के लिए क्रियान्वित वित्तविहीन मान्यता व्यवस्था ही शासन ने स्थायी रूप से अंगीकृत व व्यवहृत कर ली।जिसके चलते आज उत्तर प्रदेश में 16000 से अधिक गैर सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालय निजी प्रबंधकों द्वारा संचालित हैं।जिनमें लाखों की संख्या में शिक्षक कार्यरत हैं।किंतु इन संस्थाओं द्वारा वेतन के नामपर मामूली धन ही व्यय किया जाता है जबकि मान्यता की शर्तों के अंतर्गत निजी स्रोतों से शासन द्वारा निर्धारित वेतन देने का शपथपत्र भी विभागों में फाइलों को शोभा बढ़ा रहा है। वित्तविहीन शिक्षकों की असली व्यथा उनका कम वेतनमान व शोषण ही नहीं अपितु उनके तथाकथित शिक्षक नेता भी हैं।महत्त्वपूर्ण तथ्य तो ये है कि इन शिक्षकों के प्रतिनिधि विद्यालयों के प्रबन्धकगण हैं न कि शिक्षक।जिससे शासन स्तर पर इनकी पीड़ा का अंत होता नहीं दिख रहा।अस्तु लोककल्याणकारी राज्य में यह सत्ता का दायित्व है कि वो दरदर ठोकर खानेवाले शिक्षकों के लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा करते हुए एक राष्ट्र-एक शिक्षा के सिद्धांत का प्रतिपादन व अनुसरण करे।कदाचित यदि समय रहते सरकार सकारात्मक कदम नहीं उठाती तो शिक्षा में गुणवत्ता की संकल्पना जहां धरी की धरी रह जायेगी वहीं धनियों की जेब की गुलाम बनती शिक्षा एकबार फिर मैकाले की नीति का अनुसरण करेगी,जोकि राष्ट्र के लिए काले अध्याय से कम नहीं होगा।-
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