


मेजर (डॉ. )बलराम त्रिपाठी
जिंदगी एक सजा है, कहना बहुत दुखद है।
उद्देश्य भूलकर हमने, किया बहुत गलत है।
इंद्रियों को तृप्त, करने में हम लगे हैं।
रूप रस गंध में, हम सब कोई ही फंसे हैं।
कभी काम ने फंसाया, कभी दृश्य में हैं अटके।
जाना कहां था कैसे, है मार्ग में ही भटके।
पहचान तुमस्वयं को, कौन हो कहां से आए।
शरीर मान करके, अपने को फ़साये।
इंद्रिय शरीर से अब, अलग कर स्वयं को।
काया तेरी सवारी, सवार समझ स्वयं को।
आनंद के लिए ही, जीवन तुझे मिला है।
सजा नहीं है जीवन, सुख शांति से भरा है।
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