


उदयराज मिश्र
——————मानस में गोस्वामी तुलसी जी ने लिखा है-“बड़े भाग मानुष तन पावा।”वैश्विक संस्कृतियों एवम साहित्यों का अनुशीलन भी इस बात की पुष्टि करता है कि 84 लाख योनियों में मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ होता है।किंतु सर्वश्रेष्ठ होने का यही दम्भ आज मानव समाज पर भारी पड़ता दिख रहा है जबकि हमारा सारा का सारा ज्ञान-विज्ञान नेत्रों से ओझल रहने वाले एक विषाणु के आगे नतमस्तक होता दिख रहा है औरकि हमें चुपचाप अपने स्वजनों के विछोह को सहने हेतु विवश कर रहा है।कदाचित यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रकृति आज संतुलन के क्रम में मानव जाति की परीक्षा लेती हुई दिख रही है। यथार्थ सत्य तो यह है कि मानव ने सामरिक शक्तियों के गुमान में जहां एक से एक अस्त्रों-शस्त्रों-आग्नेयास्त्रों का निर्माण किया है वहीं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यकता से अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है।इतिहास साक्षी है कि हमने वनों को काटा तो अकाल पड़ने शुरू हुए और वायु प्रदूषित हुई।नदियों की धाराओं को मोड़कर बांध बनाये तथा अवैध खनन को बढ़ावा दिया तो बाढ़ की विभीषिका जगजाहिर है।कल-कारखानों के विकास के क्रम में आज मृदा प्रदूषण,ध्वनि प्रदूषण के साथ साथ रेडियो धर्मी प्रदूषण भी मानव के लिए सुरसा का मुंह बाए खड़ा है।जिससे स्वतः प्रमाणित होता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ आज वैश्विक जगत को भारी पड़ रही है।कोरोना महामारी भी प्रयोगशालाओं से जन्मी और सम्पूर्ण संसार को अपने लपेटे में लेती हुई उत्तरोत्तर महाविनाश की ओर बढ़ रही है।आज सुपरसोनिक,हाइपरसोनिक और मानव रहित विमान तथा मिसाइलें बनाने वाले औरकि स्वयम को सुपर नेशन कहने वाले देश भी कोरोना के आगे पस्त हैं।आखिर ऐसा क्यों है?यह सम्प्रति विचारणीय है। मानस में ही एक प्रसंग आता है कि-अतिशय देखि धरम कै हानी।परम सभीत धरा अकुलानी।।यहां पर धर्म का वृहद अर्थ लिया गया है नकि आजकल की तरह संकुचित।प्रस्तुत प्रसंग में मानसिक प्रदूषण को ही धर्म की हानि बताया गया है।जब काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मान, मत्सर आदि के वशीभूत कोई गुणज्ञ भी दम्भी हो जाता है तो वह कोई भी कृत्य कुकृत्य करने से बाज नहीं आता।इसप्रकार आज राष्ट्रधर्म का होता ह्रास और नैतिकता में दिनोदिन होती गिरावट स्प्ष्ट रूप से मानसिक प्रदूषण का जीवंत उदाहरण है।जिसे प्रकृति अब सहन करने में असमर्थ दिखती है।फलतः आये दिन चिर्री मारना, भूकम्प आना,अतिवृष्टि या अनावृष्टि होना असंतुलन को संतुलन करने का क्रम भी कहा जा सकता है।जिसके आगे मानव अपनी अस्मिता की लड़ाई बेबस हो लड़ रहा है।
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