


नेक विचारों व कर्मों को तवज्जो देने वाले, उसे अपने जीवन-व्यवहार में सदा समाहित करने वाले कभी निराशा एवं मनोमालिन्यता के शिकार नहीं होते। इस प्रकृति के जनों का आत्मबल तो मजबूत होता ही है साथ ही ये औरों के लिए भी प्रेरणा स्रोत साबित होते हैं। निरपेक्ष भाव से सबके हित की सोचने व करने वालों, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन मर्यादाओं, तथा रिश्तों का मान-सम्मान रखने वालों की आत्म-शक्ति प्रबल क्यों होती है, जबकि इनकी वर्तमान जीवन-परिस्थितियां आर्थिक विपन्नताओं की ओर झुकी होती हैं तथा इनके अनुयायी, अनुगामी एवं सहचर भी कम होते हैं? किसी भी देशकाल परिस्थिति के सन्दर्भ में इस वैचारिक विन्दु पर यदि मंथन किया जाय तो हर काल खण्ड में आस्था व विश्वास की डोर जीवन के जिन मूल्यों, विचार – व्यवहारों से जुड़ी होती है, तदनुकूल ही फल की प्राप्ति स्वभाविक है। हर अच्छे विचार एवं कर्म आत्मा को संबलित करते हैं। जीवन में सच्ची सुख-शांति उसे ही मिलती है, जिसका आत्मबल मजबूत होता है। ऐसे में सच्चाई से मिताई में ही भलाई है। सद्-विचारों एवं कर्मों के आहार या ग्राह्यता से हृदय आह्लदित होता है । इससे व्यक्ति में भय, निराशा एवं अस्थिरता को ठौर नहीं मिलता । परहित अर्थ में अच्छी करनी के एवज में उनकी चाहतों, आशीः वचनों, प्रेम व सहयोगी भावों के प्रति नेक पथी या शुभ करने वाला पूर्ण आश्वस्त तो होता ही है, साथ ही स्व-कर्म से पूर्ण तुष्टि का तेज भी आत्मा की सबलता का हेतु सिद्ध होता है । जीवन जीने का असली आनन्द ऐसे ही जन उठाते हैं, भले ही ये अर्थाभाव के आगोस में क्यों न हों। वहीं इसके प्रतिकूल आचार व्यवहार वाले पग-पग पर भय और अविश्वास के घोड़े पर सवार होने की स्थिति में जीवन के सभी क्षेत्रों एवं आयामों पर सशंकित रहने से वास्तविक सुख-शांति से सदा दूर रहते हैं । परहित में स्वहित एवं परपीड़ा में आत्मपीड़ा की हृदयानुभूति करने वाले ही आत्मबली होते हैं, जबकि परहित से दूर तथा परपीड़ा से सुखानुभूति करने वाले आत्मा के द्रोही बन बारम्बार उसके हन्ता बनते हैं । ध्यान रहे जब भौतिक शरीर से स्वांस का संयोग किसी न किसी समय वियोग को प्राप्त होना ही है, तब अपने अनुचित, अमानवीय विचारों व कर्मों से आत्म-सुख के अपहर्ता न बनें। –
सुरेश लाल श्रीवास्तव प्रधानाचार्य रा० इं० का० अकबरपुर अम्बेडकर नगर(उ०प्र०) 224155 मो० न०-9415789969
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