खाकी-खादी और अपराधी खाकी-खादी और अपराधी
खाकी,खादी और अपराधियों की तिकड़ी भारतीय लोकतंत्र में राजनीति के अपराधीकरण का प्रतिफल कम समय में ज्यादा से ज्यादा जर-जमीन बटोरने का एक सशक्त... खाकी-खादी और अपराधी

खाकी,खादी और अपराधियों की तिकड़ी भारतीय लोकतंत्र में राजनीति के अपराधीकरण का प्रतिफल कम समय में ज्यादा से ज्यादा जर-जमीन बटोरने का एक सशक्त जरिया है,जोकि विशेष कर पिछले चार दशकों से अधिक समय में संरक्षित हो अब पूरी तरह अपने यौवन के उफान पर है।लिहाजा कानपुर में चाहे 8 बहादुर सिपाहियों और अधिकारियों की शहादत हो या प्रतापगढ़ में पिछले कुछ साल पहले हुई पुलिस उपाधीक्षक की हत्या हो सबकी सब सत्ता और सरकार तक अपराधियों की पहुंच और पुलिस का उनके द्वारा वित्तपोषण की ही परिणति हैं।अलबत्ता इस तिकड़ी के चलते कभीकभार ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले जननेता और पुलिसकर्मी तथा अधिकारी भी जहां अपने को नागरिक पुलिस में असहज पाते हैं वहीं सत्ता और सरकार तलक मलाई पहुंचाने वालेलोग अक्सर अपनी तैनातियों को लेकर राजनेताओं के इशारों पर नाचते भी रहते हैं।इसप्रकार यह कहना कदाचित प्रासंगिक और समीचीन होगा कि राजनेताओं के इशारों पर नाचती हुई जर-जमीन की जुगत में अपनी वर्दी की लाज न करती हुई कर्तव्यपथ से बिमुख हुई पुलिस स्वयम अपराधियों की सबसे सुरक्षित शरणगाह होती है।जिसके बदले में स्वयम पुलिस बख्शीश लेने से बाज नहीं आती।
वस्तुतः स्वास्थ्य, सुरक्षा और शिक्षा यही तीन किसी भी काल में आमजनमानस की आवश्यक आवश्यकता होते हैं।परंतु दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जहां स्वास्थ्य सेवाओं को लुंजपुंज बनाती ब्यूरोक्रेसी आएदिन उपलब्धियों का ढिंढोरा मात्र पीटती रहती है वहीं अपराधियों के घर जलपान और भोजन करती पुलिस से कोई भी सज्जन व्यक्ति मिलना नहीं चाहता।आखिर ऐसा क्यों हैं?कौन लोग इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं?आदि आदि प्रश्नों के उत्तर समवेत स्वरों में बोलने और निरपेक्ष भाव से देखने पर स्वतः ही मिल जाएंगे।कमोवेश पुलिस और राजनेताओं के प्रति जनमानस के उद्गार चलती राह भी सुनाई दे जाते हैं किंतु फिर भी न राजनेता सुधर रहे हैं और न पुलिस।लिहाजा अपराधियों का मनोबल जहां बढ़ता जा रहा है वहीं चुनावों में जातीय वोट और चंदे की लालच में राजनेता गण अपराधियों को अपना बैंक समझने लगे हैं।जिससे पुलिस और नेताओं की नब्ज पकड़ अपराधी भी मनमाने कुकृत्य करते हुए बेखौफ होते जा रहे हैं और कभी कभी तो इतने बेखौफ हो जाते हैं कि कानपुर देहात जैसी घटनाएं भी पलभर में हो जाती हैं।
वस्तुतः उत्तर प्रदेश में कार्यरत और विगत दो दशकों में अवकाशप्राप्त सभी पुलिस वालों की एक खुली जांच होनी चाहिए।इस जांचमें उनकी सेवा में आने से पूर्व हैसियत और सेवाकाल में बनाई गई परिसम्पत्तियों की भी जांच होनी चाहिए।इसीतरह राजनेताओं की भी आय की जांच होनी वक्त की नजाकत और समय की मांग है।यदि सांसद और विधायक निधियां बन्द कर दीं जाएं तो भी छुटभैये अपराधियों की कमाई और निर्माण क्षेत्र में घटियापन से निजात मिल सकती है।यदि ऐसा नहीं होगा तो पुलिस और अपराधी का चोली दामन का साथ बना रहेगा और कानपुर जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति फिर फिर होना तय है।
-उदयराज मिश्र
अध्यक्ष,माध्यमिक शिक्षक संघ,अम्बेडकर नगर

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