

मनुष्य का आत्मबल ही उसका पथ प्रदर्शक
अयोध्याजिलेराज्य February 3, 2021 Times Todays News 0

डॉ दिनेश कान्त पाण्डेय
आपके हृदय-सरोवर में जिन शुभ या अशुभ विचारों, भद्र या अशुभ भावनाओं या उच्च अथवा निकृष्ट कल्पनाओं का प्रवाह चलता रहता है, वही अप्रत्यक्ष रूप से आपके व्यक्तित्व का निर्माण करता रहता है आपका एक-एक विचार, आपकी एक-एक आकांक्षा, एक-एक कल्पना वे दृढ़ आधारशिलाएँ हैं जो धीरे-धीरे आपके गुप्त मन को बनाया करती है।
जैसा अच्छा-बुरा आप स्वयं अपने आपको मानते हैं वैसा ही मानस-चित्र आपके हृदय पटल पर अंकित होता है, फिर तदनुरूप गुप्त मनोभाव आपकी नित्यप्रति की क्रियाओं में प्रकट होकर समाज के समक्ष प्रकट होते हैं। अपने विषय में जैसी आपकी राय अपनी है, वस्तुतः वैसी ही धारणा संसार आपके विषय में बनाया करता है। विश्व के सर्वोत्कृष्ट महापुरूष अपनी योजनाओं और शक्ति के विषय में जो कुछ स्वयं अपने को मानते थे, उसी उत्कृष्ट भावना के अनुसार उन्होंने संसार में सफलताएँ प्राप्त की हैं। आपके गुप्त निश्चय एवं प्रिय आदर्श ही आपका पथ उच्च और प्रशस्त करते हैं। यदि आपके ये आधारभूत विचार या अपने सम्बन्ध में बनायी हुई गुप्त धारणाएँ ही निर्बल होंगी तो निश्चय ही आप निर्बल बनेंगे। आपका आत्मबल, आपका साहस और आपका पौरूष भी कमजोर ही रहेगा। आपकी शक्तियाँ भी उसी अनुपात में कार्य करेंगी और क्रमशः जीवन के प्रति आपकी वैसी ही मनोवृत्ति भी बनेगी।
दुर्बलता शरीर की नहीं होती। उसका केन्द्र मन में रहने वाले विचार हैं। कमजोर व्यक्ति पहले मन में अपने को दीन-हीन विचारों में दुखाता है, उसका दूषित मानसिक विषय उसकी तमाम उत्पादक शक्तियों को पंगु बना देता है। उसके चारों ओर इसी प्रकार का निर्बल वातावरण निर्मित होता है । स्वयं अपने ही विचारों की क्षुद्रता के कारण व पतित दीन-हीन दुःखद अवस्था को प्राप्त करता है।
तनिक उस मूर्ख मन की स्थिति का अनुमान कीजिए जो स्वयं अपने विषय में अपनी योग्यताओं और भाग्य के विषय में तुच्छ विचार रखता है, अपने अन्दर निवास करने वाले सत्-चित्त-आनन्द स्वरूप आत्म की बेकदरी करता है, स्वयं अपने विषय में हीनत्व की भावना रखने से वह मानो सच्चिदानन्द ईश्वर की निन्दा करता है। ऐसा अदूरदर्शी व्यक्ति स्वयं मानो अपने ही हाथों से अपना भाग्य फोड़ता है। संसार की चिन्ताओं, कठिनाइयों एवं कल्पित भयों को स्वयं आमंत्रित करता है।
भक्ति योग ईश्वर या आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का योग है जो सम्पूर्ण रूप से अपने आराध्य के प्रति समर्पित है उसे कुछ भी करने की जरूरत नहीं है उसका आराध्य ही उसके जीवन का संचालनकर्ता, पालन-पोषणकर्ता व रक्षक है, भाग्य की हर स्थिति में भक्त अपना अटूट विश्वास अपने आराध्य के प्रति रखता ही है। “भगवान से कुछ माँगना ही तो हमेशा अपनी माँ के सपने पूरे होने की दुआ माँगना, तुम खुद व खुद आसमान की उँचाइयों को छू लोगे।”
एक तरफ विधाता का लेख है जिसे स्वयं विधाता भी नहीं बदलता तो दूसरी तरफ भक्त का अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण मुश्किलों के बावजूद आराध्य अपने भक्त का कार्य करता ही है तभी तो भक्त कहता है- “हर मुश्किल से विधाता निकालोगे तुम”।
जब तुम अपने चित्त को परमात्मा में लगा देते हो तो परमात्मा तुम्हारा हो जाता है। जब परमात्मा ही तुम्हारा हो गया तो फिर तुम्हें और क्या चाहिए? जब परमात्मा का चिंतन तटस्थ होकर किया जाता है तो अशांति शान्ति में स्वमेव बदलती जाती है और अशान्त चित्त शांत हो जाता है।
याद रखिए अपने को तुच्छ या नगण्य समझने वाला व्यक्ति संसार में कभी कुछ नहीं कर सकता है, वह शुष्क और निराश दिखाई देता है, उसे सब अपने से बड़े और सशक्त दिखाई देते हैं। वह बोलते हैं पस्तु डरते हैं। सदा सबके पीछे ही चलता है।
यदि इस प्रकार आप पिछड़ते हैं, हीनत्व को पालते-पोसते गये तो आपको कंधे पर उठाकर कोई नहीं ले चलेगा। यदि स्वयं आपने अपने-आपको ठोकर मार दी, तो स्मरण रखिए, प्रत्येक व्यक्ति आपको ठोकर ही लगाता रहेगा, गाली देता और कुचलता हुआ आगे बढ़ता चला जायेगा। यह संसार, यह समाज, यह युग हँसते हुए के साथ ही हँसता है, रोते को छोड़ देता है, मरे हुए को फूँक कर अथवा दफनाकर शीघ्र ही भुला देता है। दीन-हीन के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि चिन्तन से उसी भाव या गुण की वृद्धि होती है जिसके विषय में आप निरन्तर सोचते विचारते रहते हैं। यदि आप जीवन के कष्ट प्रद कटु त्रुटिपूर्ण पक्षों या अपनी निर्बलताओं में विचरण करते रहेंगे तो अपने दोषों की ही वृद्धि करेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि
“परिवर्तन से डरोगे तो तरक्की कैसे करोगे।” सत्य ही कहा गया है कि
“जो आपसे जलते हैं उनसे घृणा कभी न करें क्योंकि यही वह लोग हैं जो समझते हैं कि आप उनसे बेहतर हैं।”
डॉ दिनेश कान्त पाण्डेय
एकेडमिक रिसोर्स पर्सन
सोहावल, अयोध्या
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